Tuesday, September 27, 2011

बचपन के दिन

बुढ़ापे में जीवन हुआ छिन्न भिन्न 
लौट क्यों नहीं आते वे बचपन के दिन 
पलभर ने बीत गए ख़ुशी भरे दिन
अब हम दिन काट रहे पल पल गिनगिन
अम्बिया की बगिया में कनपतिया खेल 
एक पल लड़ मरना और दूजे पल मेल 
फटे हुवे कुरते की पकड़ पकड़ दम  
लल्लू था कल्लू था हम थे और तुम  
भरी दोपहरी में निकल रहा तेल 
पिछवाड़े खेल रहे रेल रेल खेल 
अध् पक्की अम्बियों पर ढेलों के वार
गदराये अधरों से टपक रही लार 
जामफल और जामुन के हरे भरे बाग़
आते हैं आजकल बहुत बहुत याद
सुलग सुलग उठती है मन में एक आग
कैसे हम भूलें उन गन्नो का स्वाद
आँगन में लालड़ी और कोडियों का खेल
प्रदर्शित करता था आपस का मेल
संध्या को दादी की अगल बगल बैठ 
शत्रुओं के बच्चे भी करके घुसपैठ
बोल रहे मीठी मनमोहक बानी 
दादी सुनाईये दिलचस्प कहानी 
दादी ले जाती थी परियों के देश 
अब मित्र यादें रहीं मात्र शेष 
बाक़ी हमारा सर्वस्व गया छिन्न 
लौट क्यों नहीं आते वे बचपन के.
                                "चरण"



















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