Saturday, December 3, 2011

एक रोटी का सव

मरे हुए शरीर को घसीटती हुयी
रेगिस्तान बन गयी छातियों पर
अधमरे बच्चे को
चिपकाये हुए
एक नारी आत्मा
मेरे दरवाजे पर आ खडी हुयी
और
मूक फिल्मो की भांति
होंठ फरफराने लगी
जिसका आशय
रात की बची
एक बासी रोटी से था
मैंने जुबान पर
गोखरू उगा कर कहा
माँ
रोटी तो मेरे पास नहीं है
किन्तु
आज ही
रोटी पर ----मैंने
एक बड़ी सशक्त
कविता लिखी है
चाहो तो
पढ़कर सुना दूँ .
               "चरण"

1 comment:

  1. वाह सर...ज़बान पर गोखरू...
    कभी हथेली पर सरसों उगाई थी...

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