कभी मायूस होता हूँ या थक कर टूट जाता हूँ
किसी एकांत में जाकर ग़ज़ल को गुनगुनाता हूँ
मुझे आराम मिलता है मेरी हालत सुधरती है
सभी गम दूर होते हैं सभी दुःख भूल जाता हूँ
आज कंगाल हूँ माना कोई छप्पर नहीं सिर पर
पुरानी याद कर करके मै खुद ही मुस्कराता हूँ
मैं जब जब भी गिरा हूँ इस गजल ने ही संभाला है
प्रेयसी मान कर इसको मै सीने से लगाता हूँ
मैं गूँगा था मैं बहरा था मै लंगड़ा और लुल्हा था
इसी के पुण्य से मैं आजकल कुछ बोल पाता हूँ
कभी उपहास करती है कभी खिल्ली उड़ाती है
इस अंदाज़ में भी कुछ न कुछ गंभीर पाता हूँ
कोई न देख ले मुझको कभी रोते हुवे साथी
मैं इसकी पीठ के पीछे मेरा चेहरा छुपाता हूँ .
"चरण"
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