धरती तेरे भाग जग गए
खुशियों के अम्बार लग गए
आसमान इतना झुक आया
धरती का आँचल कहलाया
दीपों की दुल्हन के आगे
पति रौशनी का शरमाया
जब जब पर्व दिवाली आया
खुशियों का त्यौहार दिवाली
सबने मुझसे यही कहा है
किन्तु मैंने इस अवसर पर
केवल कोरा कष्ट सहा है
बाहर फुलझड़ियाँ चलती हैं
भीतर मन पंछी घबराया
जब जब पर्व दिवाली आया
दीवाली से दीवाली तक
भावों का भव्य महल बनाया
अंतर में सोयी ज्वाला को
फूंक फूंक कर पुनः जलाया
होंठ बने अंगारे फिर भी
शीतलता का संग निभाया
जब जब पर्व दिवाली आया
इसी वर्ष अंतिम लम्हों तक
लगा विप्पति हार चुकी है
अधरों पर मुस्कान खिल उठी
आँखों में सावन भर आया
प्रथम दीप रोशन करने को
ज्यों ही मैंने हाथ बढाया
कानों में वे शब्द गूँज उठे
प्रकृति ने वज्र गिराया
जब जब पर्व दिवाली आया .
"चरण"
पुनश्च --कई वर्ष पहले ठीक दिवाली के दिन मेरी
बड़ी बहन का देहांत हो गया था तब से लेकर
हर दिवाली पर दिल घबराने लगता है डर
लगने लगता है और उसी डर से उपजी है यह कविता .
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