Friday, October 14, 2011

हर रोज यही होता है

हर रोज घर से निकलता हूँ 
और सोचता हूँ 
वह दोड़ते हुवे आएगी 
मुझसे लिपट जावेगी 
अपना सर 
मेरे सीने में छुपा लेगी 
बहुत देर तक खड़े रहेंगे 
नि:शब्द
फिर मै उसका सर ऊपर उठाऊंगा 
उसकी पेशानी को चूम लूँगा 
और फिर बैठ जायेंगे 
कहीं एकांत में 
वो कैसे मुस्कुराएगी 
वो कैसे बोलेगी 
हम क्या बातें करेंगे 
कितनी खूबसूरत लगेगी 
वह बातें करते हुवे 
फिर घंटों तक 
यूँ ही बतियाते रहेंगे 
एक दूसरे से 
वह खिलखिला पड़ेगी
बीच में 
पेड़ के पत्ते हिलने लगेंगे 
ठंडी हवा का झोंका 
हमें छू कर चला जायेगा 
शाम ढलने को आ जाएगी 
हम खड़े हो जायेंगे 
लिपट जायेंगे एक दुसरे से 
फिर एक बार 

सोचते सोचते मेरा रास्ता कट जाता है 
और मै 
पहुँच जाता हूँ कहीं का कहीं 
किन्तु 
उसके पास कभी नहीं पहुँच पाता .
                                    "चरण"

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