Sunday, October 23, 2011

दीवाली

दमे से खांसती 
पेबंद लगे लिबास में 
जर्जर हड्डियों पर 
अपने आप को संभालती 
लो फिर आ गयी है 
सदियों से चली आ रही 
परम्परा ----दीवाली 
चौदह वर्ष के बनवास के पश्चात 
रामचन्द्रजी के पुनः नगर प्रवेश पर 
जिसने की थी अठखेलियाँ मनाई थी खुशियाँ 
आज वही दीवाली 
लगती है पराई सी 
खोई खोई सी 
और देश के एक कोने पर खड़े होकर 
देख रही है उसी के नाम में 
जलते हुए दीयों के प्रकाश में 
लुटते हुए लाखों करोडो रामचन्द्रों को 
लुटती हुयी सीताओं के सतीत्व को 
भर पेट भोजन 
तन भर वस्त्रों के अभाव में 
बिलखते हुवे लव कुशों को 
और देख रही है 
चन्द मुट्ठी भर रावणों को 
मय के प्यालों में 
भर भर लहू के घूंट पीते 
और तेल के स्थान पर 
लहू में भीगी हुयी बत्तियों की 
रक्तिम लौ में
अपने आप को देखकर 
सोचती है 
क्या 
मै
दीवाली 
इतनी बूढी हो चली हूँ ?
                   "चरण"

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