Friday, October 28, 2011

अनब्याहे सपने

ओ मेर शहरी प्रियतम 
मैं तुम्हे क्या दूँ 
मै तो सुबह से शाम तक 
जंगल सर पर उठाये 
दर दर घूमती हूँ 
और उसके बदले में 
चन्द सिक्के हथेली पर रखकर 
तकदीर समझ कर चूमती हूँ 
ओ मेरे शहरी प्रियतम 
मै तुम्हे क्या दूँ 
क्या मेरे तन से चिपके 
फटे पुराने 
मैले कुचैले 
चीथड़ों की दुर्गन्ध 
तुम्हारे नथुने बर्दाश्त कर सकेंगे 
ओ मेरे शहरी प्रियतम 
मै तुम्हे क्या दूँ 
कहाँ से लाऊं वह शहरी चंचलता 
कहाँ से लाऊं वह इठलाना 
रूठना रूठना 
मन्ना मनाना 
मेरे खुरदरे हाथों का स्पर्श 
मेरे सूखे होंठों का चुम्बन 
क्या तुम्हे रोमांचित कर सकेगा 
मेरे प्राण 
ओ मेरे शहरी प्रियतम 
मै तुम्हे क्या दूँ
इस कलमुही धुप ने 
मेरी रक्तवाहिनियों में 
बहते हुए रक्त को 
उल्टा बहने पर मजबूर कर दिया है 
इस निगोड़ी भूख ने 
मेरे उदर की गोलाई को 
आयताकार कर दिया है 
मुझे कब भूख लगती है 
और मै कब तृप्त होती हूँ 
मुझे कुछ एहसास नहीं होता 
ओ मेरे शहरी प्रियतम 
मै तुम्हे क्या दूँ 
तुम मुझमे यौवन ढूँढोगे
पर कहाँ है यौवन 
केवल सुना है 
माँ के मरने पर 
मेरा यौवन नीलाम हो गया था 
दो गज कफ़न के बदले 
मेरे बापू 
मेरा यौवन 
उस समय 
जब मै यौवन का अर्थ भी नहीं समझती थी 
किसी लखपति के यहाँ पर 
गिरवी रख आये थे 
क्या तुम मेरा यौवन 
उस लखपति के शिकंजे से छुड़ा पाओगे प्राण 
अब मेरी संवेदन शीलता 
समाप्त हो गयी है 
इस जंक खाए हुवे मांश के लोथड़े को 
अर्थों में न बदलो प्राण 
ओ मेरे शहरी पागल प्रियतम 
इतने भावुक न बनो 
इतने कमजोर न बनो 
मेरे सोये हुए सपनो को सोने दो 
इन कुंवारे सपनो को 
अनब्याहा ही रहने दो .
                           "चरण"

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