Monday, October 31, 2011

झूठ के पांव नहीं होते मगर दौड़ता बहुत तेज है .
                                                        "चरण"

Saturday, October 29, 2011

निष्कर्ष और निष्कर्ष बोध -सत्य

ढेर सारी जिंदगी के ढेर सारे स्वप्न 
नंगे हो पहाड़ों से फिसलकर 
धूप सेवन कर रहे हैं 
और 
बर्फ सी जमकर 
फटी आँखे 
हजारों भावनाओं को सहेजे 
पी रही है जाम 
धुंधला हो गया है आसमान 
धडकनों का -------
चुभ रहे हैं शब्द अपनों के परायों के 
अधूरे गीत बनकर जागरण के 
आत्मा में मोह भंग उदासियों में 
और 
आदमियत की दरारों में 
ठहाके गूंजते हैं -मौन -(फिर भी)
घुप अँधेरे में 
समय भी लडखडाता है 
पारदर्शी आंसुओं में 
ब्रह्मपुत्र + गोदावरी + कावेरी =सत्य की सम्भावना पर मौन 
फटती चिलचिलाती धूप 
बरगद के तले सांवली  बेटी 
बाडामी रंग का इतिहास 
जिसपर झुक रहा है 
लिख रहा है 
ढेर सारी जिंदगी के 
ढेर सारे स्वप्न .
                     "चरण"

Friday, October 28, 2011

अनब्याहे सपने

ओ मेर शहरी प्रियतम 
मैं तुम्हे क्या दूँ 
मै तो सुबह से शाम तक 
जंगल सर पर उठाये 
दर दर घूमती हूँ 
और उसके बदले में 
चन्द सिक्के हथेली पर रखकर 
तकदीर समझ कर चूमती हूँ 
ओ मेरे शहरी प्रियतम 
मै तुम्हे क्या दूँ 
क्या मेरे तन से चिपके 
फटे पुराने 
मैले कुचैले 
चीथड़ों की दुर्गन्ध 
तुम्हारे नथुने बर्दाश्त कर सकेंगे 
ओ मेरे शहरी प्रियतम 
मै तुम्हे क्या दूँ 
कहाँ से लाऊं वह शहरी चंचलता 
कहाँ से लाऊं वह इठलाना 
रूठना रूठना 
मन्ना मनाना 
मेरे खुरदरे हाथों का स्पर्श 
मेरे सूखे होंठों का चुम्बन 
क्या तुम्हे रोमांचित कर सकेगा 
मेरे प्राण 
ओ मेरे शहरी प्रियतम 
मै तुम्हे क्या दूँ
इस कलमुही धुप ने 
मेरी रक्तवाहिनियों में 
बहते हुए रक्त को 
उल्टा बहने पर मजबूर कर दिया है 
इस निगोड़ी भूख ने 
मेरे उदर की गोलाई को 
आयताकार कर दिया है 
मुझे कब भूख लगती है 
और मै कब तृप्त होती हूँ 
मुझे कुछ एहसास नहीं होता 
ओ मेरे शहरी प्रियतम 
मै तुम्हे क्या दूँ 
तुम मुझमे यौवन ढूँढोगे
पर कहाँ है यौवन 
केवल सुना है 
माँ के मरने पर 
मेरा यौवन नीलाम हो गया था 
दो गज कफ़न के बदले 
मेरे बापू 
मेरा यौवन 
उस समय 
जब मै यौवन का अर्थ भी नहीं समझती थी 
किसी लखपति के यहाँ पर 
गिरवी रख आये थे 
क्या तुम मेरा यौवन 
उस लखपति के शिकंजे से छुड़ा पाओगे प्राण 
अब मेरी संवेदन शीलता 
समाप्त हो गयी है 
इस जंक खाए हुवे मांश के लोथड़े को 
अर्थों में न बदलो प्राण 
ओ मेरे शहरी पागल प्रियतम 
इतने भावुक न बनो 
इतने कमजोर न बनो 
मेरे सोये हुए सपनो को सोने दो 
इन कुंवारे सपनो को 
अनब्याहा ही रहने दो .
                           "चरण"

Thursday, October 27, 2011

लाटरी

जब केरल सरकार ने करी लाटरी स्टार्ट 
हमने भी कटवा लिए गिनकर टिकटें आठ 
गिनकर टिकटें आठ लक अजमाकर देखें 
फ़ोकट का पैसा है थोडा खाकर देखें 
कहे "चरण" सुन भाई जगत का ऐसा खेला 
जहाँ मुफ्त का मिले वहीँ पर ठेलम ठेला 
दूजे दिन से हो गए हम सच्चे ईशा भक्त 
घर वालों को दे दिया आर्डर ऐसा शक्त 
आर्डर ऐसा शक्त न कोई गुनाह करेगा 
बाईबल में जो लिखा उसी का मनन करेगा 
और कभी अब नहीं किसी को पिक्चर जाना 
छोड़ सिनेमा गान मसीही गीतों को गाना 
पहले पूरे वर्ष में चर्च जाते दो बार 
और अब प्रारंभ कर दिया दिन में दो दो बार 
दिन में दो दो बार समय भी खूब लगाते 
हर प्रार्थना के बीच खुदा को ये बतलाते 
गर लाटरी खुल जाये हमारे नाम अभी 
जीवन भर न भूलूं यह अहसान कभी 
माह बाद ही टपक पड़ा लाटरी का परिणाम 
किन्तु उसमे गायब था बंधु अपना नाम 
बंधु अपना नाम हाथ दूजे ने मारा 
और हो गया असफल सभी प्रयास हमारा 
तब से चर्च में कर दिया आना जाना बंद 
जब हमको नहीं लाभ तो सहें क्यों कोई प्रतिबन्ध .
                                                    "चरण"

Tuesday, October 25, 2011

जब जब पर्व दिवाली आया

धरती तेरे भाग जग गए 
खुशियों के अम्बार लग गए 
आसमान इतना झुक आया 
धरती का आँचल कहलाया 
दीपों की दुल्हन के आगे 
पति रौशनी का शरमाया 
जब जब पर्व दिवाली आया 
खुशियों का त्यौहार दिवाली 
सबने मुझसे यही कहा है 
किन्तु मैंने इस अवसर पर 
केवल कोरा कष्ट सहा है 
बाहर फुलझड़ियाँ चलती हैं 
भीतर मन पंछी घबराया 
जब जब पर्व दिवाली आया 
दीवाली से दीवाली तक 
भावों का भव्य महल बनाया 
अंतर में सोयी ज्वाला को 
फूंक फूंक कर पुनः जलाया 
होंठ बने अंगारे फिर भी 
शीतलता का संग निभाया 
जब जब पर्व दिवाली आया 
इसी वर्ष अंतिम लम्हों तक 
लगा विप्पति हार चुकी है 
अधरों पर मुस्कान खिल उठी 
आँखों में सावन भर आया 
प्रथम दीप रोशन करने को 
ज्यों ही मैंने हाथ बढाया 
कानों में वे शब्द गूँज उठे 
प्रकृति ने वज्र गिराया 
जब जब पर्व दिवाली आया .
                                "चरण"
पुनश्च --कई वर्ष पहले ठीक दिवाली के दिन मेरी 
            बड़ी बहन का देहांत हो गया था तब से लेकर 
            हर दिवाली पर दिल घबराने लगता है डर
            लगने लगता है और उसी डर से उपजी है यह कविता .

Monday, October 24, 2011

आओ हम दीपक जलायें

निज देश रूपी इस दिये में 
संघटन का तेल लेकर 
स्नेह की बाती बनाएं 
आओ हम दीपक जलायें 
बाहर माना है उजाला 
किन्तु भीतर का अँधेरा 
बढ़ रहा सर्वनाश हेतु 
आओ हम उसको मिटाएँ 
आओ हम दीपक जलायें 
कितने दीपक बुझ चुके हैं 
दीप से दीपक जलाते 
कितने अब भी जल रहे हैं 
आँधियों में मुस्कुराते 
आओ इनके साथ हम भी 
दो घडी तो मुस्कुराएं 
आओ हम दीपक जलायें 
कुर्सियों की होड़ में 
जी तोड़ मेहनत कर रहे जो 
स्वर्ग हो पृथ्वी पर ऐसा
झूठ वायदा कर रहे जो 
उनके मन से 
स्वार्थ की सीलन हटायें 
आओ हम दीपक जलायें 
अपने घर में दीप मालाएं सजाना 
और दियों संग झूम कर गाना बजाना 
किन्तु उस पल याद कर लेना उनेह भी 
नियति ने जिनके दियों को 
फोड़ डाला 
और अगर संभव लगे तो 
दो दया के दीप 
उनके द्वार पर 
निश्चय जलायें 
आओ हम दीपक जलायें .
                          "चरण"

Sunday, October 23, 2011

दीवाली

दमे से खांसती 
पेबंद लगे लिबास में 
जर्जर हड्डियों पर 
अपने आप को संभालती 
लो फिर आ गयी है 
सदियों से चली आ रही 
परम्परा ----दीवाली 
चौदह वर्ष के बनवास के पश्चात 
रामचन्द्रजी के पुनः नगर प्रवेश पर 
जिसने की थी अठखेलियाँ मनाई थी खुशियाँ 
आज वही दीवाली 
लगती है पराई सी 
खोई खोई सी 
और देश के एक कोने पर खड़े होकर 
देख रही है उसी के नाम में 
जलते हुए दीयों के प्रकाश में 
लुटते हुए लाखों करोडो रामचन्द्रों को 
लुटती हुयी सीताओं के सतीत्व को 
भर पेट भोजन 
तन भर वस्त्रों के अभाव में 
बिलखते हुवे लव कुशों को 
और देख रही है 
चन्द मुट्ठी भर रावणों को 
मय के प्यालों में 
भर भर लहू के घूंट पीते 
और तेल के स्थान पर 
लहू में भीगी हुयी बत्तियों की 
रक्तिम लौ में
अपने आप को देखकर 
सोचती है 
क्या 
मै
दीवाली 
इतनी बूढी हो चली हूँ ?
                   "चरण"

Friday, October 21, 2011

ओ दिए दीपावली के

ओ दिए दीपावली 
तोड़ दे इस मौन को अब 
कब तलक चुपचाप तू 
इस आग में जलता रहेगा 
आदमी तो हो गया 
आदि अँधेरे के पथों का 
और इस अंधकार में चलता है 
और चलता रहेगा 
 कौन समझेगा तेरी इस 
मौन भाषा को यहाँ पर 
पाप का साया है लम्बा 
और लम्बाता रहेगा 
स्वार्थ और पुरुषार्थ का 
अंतर समझ लेगा यह मानव 
तू समझता है तेरे प्रकाश में 
भूल करता है दिए तू 
व्यर्थ ही जलता है 
और जलता रहेगा 
कौन तेरे त्याग से प्रेरित हुआ है 
कौन तेरे दर्द से द्रवित हुवा है 
कौन तेरी आत्मा में लींन होकर 
मोड़ देगा अपने मन को 
तुझमे ही गंभीर होकर .
                           "चरण"

Thursday, October 20, 2011

फिर भी वोट मुझे ही देना

माना मै इस योग्य नहीं हूँ देश के खातिर प्राण गवाऊं 
माना मैं इस योग्य नहीं हूँ देश का सच्चा पूत कहाऊँ
किन्तु एक निवेदन मेरा इस पर ध्यान अवश्य देना 
फिर भी वोट मुझे ही देना 
यह सच है मैंने दीनो का रक्त पिया है 
यह सच है मैंने अपना ही भला किया 
किन्तु यही कहता हूँ तुमसे इस पर ध्यान अवश्य देना 
फिर भी वोट मुझे ही देना 
पढ़ा लिखा बेकार घूमता इसका श्रेय भी मुझको ही है 
और मेरे दो अनपढ़ बेटे चीफ मेनेजर इसका श्रेय भी मुझको ही है 
ध्यान अगर देना ही चाहो इस पर ध्यान अवश्य देना 
फिर भी वोट मुझे ही देना 
हरिजनों से नफरत करता इसमें कोई शक नहीं है 
और जहाँ मै खड़ा हुवा हूँ इस पर मेरा हक़ नहीं है 
गाली देना चाहो तो जी भर कर देना 
फिर भी वोट मुझे ही देना 
और यदि मै चुना गया तो गिन गिन कर बदला ले लूँगा 
तुम जितने बैठे हो प्यारों सबका गला घोंट डालूँगा 
मेरी बात बुरी लगी तो बुरा मानना
फिर भी वोट मुझे ही देना 
                                      "चरण"

Sunday, October 16, 2011

एक मौका तो दो

मुझको मेरे प्यार के इजहार का मौका तो दो 
आ गयी हो तो मुझे  आभार का मौका तो दो 
तुम परी हो अप्सरा हो हूर हो मन्दाकिनी 
आँख भर कर देख लेने का मुझे मौका तो दो 
मैं समझता हूँ तुम्हारे प्यार के काबिल नहीं 
फिर भी थोडा पास आने का मुझे मौका तो दो 
तुम्हारे रूप रंग हुश्न का कायल हूँ मैं 
तुम्हारी महक पाने का जरा मौका तो दो 
तुम्हारी चाह में कितने दीवाने हो गए पागल 
मुझे भी टूट जाने का जरा मौका तो दो 
दूर से ही फूल बरसाती रहोगी होंठ से 
मुझे भी मुस्कुराने का जरा मौका तो दो 
तुम्हारी आँख है या झील है या हिंदमहासागर 
मुझे भी डूब जाने का जरा मौका तो दो 
मेरे दिल को कुचल कर जा रही हो जानेमन 
बिखरे हुए टुकड़े उठाने का जरा मौका तो दो 
                                                     "चरण"

Saturday, October 15, 2011

हे सूर्यकांत शत शत प्रणाम

हिंदी के गर्वोंमुख शिखर 
अजर अमर अभिव्यक्ति स्वर 
पौरुष ध्वज कर्नाकांत सरल 
शिव तुमने निशिदिन पिया गरल 
आल "जुही की कलिका " है अतिशय उदास 
व्यक्ति "स्मृति है सरोज " की आतुर "तुलसी दास"
चल रहा अभी भी "भिक्षु" वही लकुटिया टिकाकर 
इलाहाबाद पथ पर / अब भी 
तोड़ रही वह बेबस पत्थर 
युग के दधिची ,पीड़ा के कवि
नव युग दृष्टा सृष्टा युग रवि 
हे तपोपूत  त्यागी अकाम 
हे सूर्यकांत तुमको प्रणाम 
हे ज्योति पुंज शत शत प्रणाम .
                                 "चरण"

Friday, October 14, 2011

हर रोज यही होता है

हर रोज घर से निकलता हूँ 
और सोचता हूँ 
वह दोड़ते हुवे आएगी 
मुझसे लिपट जावेगी 
अपना सर 
मेरे सीने में छुपा लेगी 
बहुत देर तक खड़े रहेंगे 
नि:शब्द
फिर मै उसका सर ऊपर उठाऊंगा 
उसकी पेशानी को चूम लूँगा 
और फिर बैठ जायेंगे 
कहीं एकांत में 
वो कैसे मुस्कुराएगी 
वो कैसे बोलेगी 
हम क्या बातें करेंगे 
कितनी खूबसूरत लगेगी 
वह बातें करते हुवे 
फिर घंटों तक 
यूँ ही बतियाते रहेंगे 
एक दूसरे से 
वह खिलखिला पड़ेगी
बीच में 
पेड़ के पत्ते हिलने लगेंगे 
ठंडी हवा का झोंका 
हमें छू कर चला जायेगा 
शाम ढलने को आ जाएगी 
हम खड़े हो जायेंगे 
लिपट जायेंगे एक दुसरे से 
फिर एक बार 

सोचते सोचते मेरा रास्ता कट जाता है 
और मै 
पहुँच जाता हूँ कहीं का कहीं 
किन्तु 
उसके पास कभी नहीं पहुँच पाता .
                                    "चरण"

Thursday, October 13, 2011

रात कैसे बीत जाती है

अब सभी बातें पुरानी याद आती हैं
कभी इनकी कभी उनकी कहानी याद आती है
उलझे रहते हैं इसी उधेड़ बुन में हम
पता नहीं कब रात कैसे बीत जाती है
कभी उनसे मिले थे उस समय हम मनचले थे
वह भोली शक्ल भी आजकल अक्सर रुलाती है
सोते थे जिस तश्वीर को सीने से लगाकर
उसकी नाराजगी भी अब सताती है
हर रोज वही हादसा हर रोज वही डर
एक आवाज़ है जो दूर से अक्सर बुलाती है
मजधार में क्यों छोड़ कर हमको चले गए
तुम्हारी याद आती है तो बस आती ही रहती है
भीड़ है लेकिन हमी गुमनाम हो गए
अब हमारे नाम की कोई भी चर्चा नहीं होती
जब तलक चलती है गाड़ी तब तलक चलती रहे
एक दिन तो धड धडाकर गिर ही जाती है .
                                              "चरण" 

Tuesday, October 11, 2011

क्यों सताती ह

मै जितना पास आता हूँ तुम उतनी दूर जाती हो 
मेरी तनहाइयों पर दूर से मरहम लगाती हो 
ज़रा नजदीक तो आओ हमारे पास में बैठो 
यूँ हमसे दूर रहकर क्यों हमें इतना सताती हो
तुम्हारे मन में क्या है और तुम्हारी सोच में क्या है 
तुम अपने दिल की हर एक बात क्यों हमसे छुपाती हो 
हमें लगता है हमको एक दिन पागल बना दोगी
जरा सा मुस्करा दो क्यों हमें इतना रुलाती हो 
तुम भी इन्सान हो आखिर परिंदा तो नहीं हो 
मेरी आहट सुनकर फुर्र से उड़ क्यों जाती हो 
तुम्हे भी चाह तो होगी हमें स्वीकार करने की 
इसी के वास्ते हर रात को सपनो में आती हो 
कहीं पर फूल झड़ते हैं कहीं मोती बरसते हैं 
बड़ी शालीनता से जब कभी भी मुस्कराती हो 
                                                  "चरण"











Thursday, October 6, 2011

जब मै मायूस होता हूँ

कभी मायूस होता हूँ या थक कर टूट जाता हूँ 
किसी एकांत में जाकर ग़ज़ल को गुनगुनाता हूँ 
मुझे आराम मिलता है मेरी हालत सुधरती है 
सभी गम दूर होते हैं सभी दुःख भूल जाता हूँ 
आज कंगाल हूँ माना कोई छप्पर नहीं सिर पर 
पुरानी याद कर करके मै खुद ही मुस्कराता हूँ 
मैं जब  जब भी गिरा हूँ इस गजल ने ही संभाला है 
प्रेयसी मान कर इसको मै सीने से लगाता हूँ 
मैं गूँगा था मैं बहरा था मै लंगड़ा और लुल्हा था 
इसी के पुण्य से मैं आजकल कुछ बोल पाता हूँ 
कभी उपहास करती है कभी खिल्ली उड़ाती है 
इस अंदाज़ में भी कुछ न कुछ गंभीर पाता हूँ
कोई न देख ले मुझको कभी रोते हुवे साथी
मैं इसकी पीठ के पीछे मेरा चेहरा छुपाता हूँ .
                                                    "चरण"

रावण का विद्रोह

मेरे देश के महानुभावों 
सावधान हो जाओ 
अब मै चुप नहीं रहूँगा 
सहन करने की भी कुछ हद होती है 
अब पानी 
सर के ऊपर से गुजर चूका है 
मै सदियों से 
पीड़ा  दायनी अग्नि के शोलों में 
छटपटाता रहा हूँ 
तड़पता रहा हूँ 
और तुमने मेरे दर्द को नहीं जाना 
उलटे 
मेरी मर्मान्तक पीड़ा पर 
तालियाँ बजा 
खिलखिला कर हँसते रहे 
और फब्तियां कस कस कर 
भोंडा सा मजाक उड़ाते रहे 
मेरे आंसुओं में अपनी 
फुझारियां जला जला कर 
मुझे असहनीय कष्ट पहुंचाते रहे 
और मैं चुपचाप खड़ा खड़ा सब कुछ सहता   रहा 
किन्तु अब 
मैं शांत नहीं रहूँगा 
माना मैंने पाप किया है 
किन्तु 
क्या सदियों से भोगा हुआ दुःख 
इस पाप का प्रायश्चित नहीं है 
जरा अपने गिरहबान में मुह डाल कर देखिये 
तुम्हारे समाज में 
कितने भयंकर रावण पैदा हो गए हैं 
और केवल रावण ही नहीं 
बल्कि 
राम भी ऐसे करिश्मे दिखा रहे हैं 
जिन्हें देखकर 
मुझे भी शर्म आती है 
मैंने तो सीता को  
केवल परेशान ही किया था 
यहाँ तक की मैंने तो स्पर्श तक नहीं किया 
ये तो तुम खुद भी जानते हो 
यदि स्पर्श किया होता 
तो क्या सीता अग्नि परीक्षा में खरी उतरती 
किन्तु आज 
आज तो तुम्हारी नाक के नीचे 
कितने ही राम और रावण 
आपस में समझोता कर 
एक रोटी का भुलावा देकर  
सिलकियन्न सीताओ को 
सरेआम 
जंघाओं पर बैठा कर 
बे रहमी से  
उनकी बोटी बोटी 
नोच खाने को उतारू हो गए हैं 
और फिर 
जब वही रावण 
और वही राम 
एक दुसरे के हाथ में हाथ डाले 
किसी बड़ी सभा में आपस में मिलते हैं 
तो आप धरती तक झुख कर 
उन्हें नमस्कार करते है
इसलिए की आपमें 
उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं है 
और अब मै 
विद्रोह करके रहूँगा  
अगर कानून है तो सबके लिए हो 
यदि मुझे 
मेरे पापों की सजा देने के लिए 
जलाया जा सकता है 
तो समाज में फैले 
इन दुसरे रावनो में भी आग लगाओ 
और न केवल रावनो में 
बल्कि उस रामचंदर में भी 
जो अभी थोड़े दिन पहले 
उस आदिवासी घसीटा की 
पत्नी सुखिया को उडा ले गया था 
और बेचारे घसीटा को अयोग्य घोषित कर 
रिजेक्ट कर दिया गया 
अगर यह नहीं कर सकते 
तो मुझे भी 
हमेशा हमेशा के लिए 
मुक्त कर दिया जाए 
और मैं जानता हूँ 
मुझे मुक्त करना तुम पसंद नहीं करोगे 
क्योंकि 
तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के मनोरजन का 
एक साधन समाप्त हो जायेगा 
किन्तु मी लोर्ड 
कुछ भी हो 
अब मैं चुप नहीं रह सकता 
मेरे अंतःकरण में 
विद्रोह की ज्वाला भड़क रही है 
इसका 
कुछ न कुछ समाधान 
तो होकर ही रहेगा 
 
                        "चरण"









  

Monday, October 3, 2011


आजकल हर रोज लुट रही सुखिया   
                                "चरण"