Monday, November 7, 2011

भावनाओं के द्वार खटखटाते हुए दो भाव अब भी शेष हैं ___

हाँ जीवन का सूरज 
डूब गया भरी दुपहरी में 
साँझ घिर आयी है 
अँधेरा होने तक 
भटक गया है  कारवां गंतव्य से 
निराशा की गहरी खाइयाँ 
उलझनों के ऊँचे ऊँचे पर्वत 
पाप के कंटीले वन 
सभी कुछ सामने हैं 
अविश्वाश की गांठ अभी भी 
सुलझी नहीं 
आज फिर पनप रहा है एक नया बीमार 
गुटबंदी का जामा पहने 
किन्तु अब भी शेष है 
प्रभु की ज्योति एकता सूत्र में 
बाँधने को 
हाँ धर्म की ज्योति दिखाने को 
ताकि हम भी देख सकें 
अनंत जीवन का स्वर्ग 
यही हमारा कर्तव्य है .
                       "चरण"

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