Tuesday, July 5, 2011

गाँव के दो चित्र

                सुबह
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बहुत याद आती है
मुंडेरों से उतरती हुयी
धुधिया सी धूप
आँगन में बुझा हुआ
रात का अलाव
अधनंगे बच्चों का
पास में जमाव

बहुत याद आते हैं
कुहराए खेत
खेतों में रुका हुआ
ओस कण काफिला
अनिश्चित जीवन का
तय करता फासला

बहुत याद आती है
उपलों पे सिकी हुयी
कुर्राती
बाजरे की रोटियां
रोटियों पर घुटा हुआ
सरसों का साग
यादों का मृगछोना
गया दूर भाग .
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             शाम
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बहुत याद आती है
सरसों के खेतों में
चहक रही शाम
जैसे की मधुवन में
बांसुरी की तान छेड़े
मडराते फिरते हों
राधा के श्याम

बहुत याद आते हैं
जंगल से लौट रहे
पशुओं के झुण्ड
शायद विधाता ने
यहीं कहीं
गाड़ दिया
अमृत का कुण्ड.
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        शर्दियों का गीत
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आशिकों की महफिलों में
ज्यों प्रसंशा रूप की
गाँव की चोपाल में
यूँ सर्दियों की धूप की

खिड़कियाँ खुलने लगी 
सब द्वारपट खुलने लगे
सुन सुरीली बांसुरी
इन शर्दियों की धूप की
ओसकण भयभीत हो
आकाश पर चढ़ने लगे
देख कर जादूगरी
इन शर्दियों की धूप की .
                           "चरण"

1 comment:

  1. आशिकों की महफिलों में
    ज्यों प्रसंशा रूप की
    गाँव की चोपाल में
    यूँ सर्दियों की धूप की

    Kyaa baat ke uncle .. loved these lines... !! Rajani

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