Thursday, July 21, 2011

जीवन -सत्य

काँच के एक पारदर्शी बक्से में
जिंदा लाश को कैद कर
तुम कितने खुश हो रहे हो
और
कल अखबार वाले
सुर्खियों के साथ
तुम्हारी इस मूर्खता को
बढ़ा चढ़ा कर बीच चौराहों  पर उछालेंगे
तब तुम्हारा सपाट सीना
बाज़ीगर के बच्चे कि लाश कि तरह
ऊपर को उठने लगेगा
और तुम
दर्शकों से आँख बचाकर
अपने सुखद भविष्य कि कल्पना करने लगोगे
तुम्हारे मानस पटल पर
तम्गो
उपाधियों और पुरस्कारो कि लकीरें
बनने बिगाड़ने लगेंगी
तब /तुम्हें लगेगा आकाश तुम्हारी मुट्ठियों में कैद हो गया है
जल थल
तुम्हारे जूथे बरतनों कि ताक में
प्रोफेस्नल कुत्तों के साथ संघर्ष कर रहे हैं
और तुम्हारे दूध पीते बच्चे
तुम्हारे कंधो पर हाथ रख कर कहेंगे
पापा
अब इस संसार में मन नहीं लगता
किसी नए संसार कि सृष्टि कर दालो
और तुम
भवोन को ताते  हुवे कहोगे
पप्पु कि मा 
देख ले
हमारा पपू कितना समझदार हो गया है
बिल्कुल केम्पुतर सी बातें करता है
और तुम्हारी पत्नी के
रक्तिम अधरो पर
वही चिरपरिचित मुस्कान तैरने लगेगी
जिसे देखकर
पिछले वर्ष तुमने कहा था
इस बंद खिड़की को खोल दो
मेरा दम घूँट रहा है
और तभी
टाका से
न्युतेन का फ्रैम जद्दा चित्र
फर्श पर गिरकर बिखर जायेगा
हर काँच के टुकड़े में
एक अलग चेहरा
काली बिल्ली के पंजों से खरोंचा हुआ
रक्तिम सा
कानों में
पिघले हुए शीशे से
"लेब बो "के घबराय हुए स्वर
सर / पंछी उड गया है
घोंसले को बाहर फेंक दूँ
और फिर
तुम्हारे लड़खड़ाते हुए कदम
अरे ---
बक्शा तो बिलकुल साबुत है
किंतु
यह दरार
पहले तो नही थी .
                          "चरण"

No comments:

Post a Comment