Sunday, July 10, 2011

जिंदगी--एक अंतहीन बहस

जिंदगी  हमको कभी हलकी कभी भारी लगी 
जिंदगी हमको कभी जीती  कभी हारी लगी 
दूर से हमको लगी यह सुरमई आकाश सी 
और देखा पास से तो बहुत बेचारी लगी 
चिलचिलाती धूप में दिन खड़ी तपती रही 
और धल्ती शाम के संग बहुत ही प्यारी लगी 
हर कथा में जिंदगी मौजूद है साथी मेरे 
इस कथा से उस कथा में जिंदगी नियारी लगी 
संत कहते हैं कि यह तो मात्र एक एहसास है 
किंतु मुझको जिंदगी अक्सर ही देह्धारि लगी 
इसके असली स्वाद का अब तक नही पता 
जिंदगी हमको कभी मीठी कभी खारी लगी 
इंसानियत के कत्घरे में जब इसे हाजिर किया 
यह अनोखी अन्हीन बहस सी जारी जारी लगी .
                                                               "चरण"

                                   {2}
सबके श्मे बदल जायेंगे धीरे धीरे 
सब उसी राह पर जायेंगे धीरे धीरे 
कुछ विनाश कर गए पहले वाले 
शे ये कर जायेंगे धीरे धीरे 
साम्प के काटे को हम बचा लेंगे 
इनके काटे हुए मर जायेंगे धीरे धीरे 
इनसे कुछ दूर से ही बात करना 
आपके आँगन में पसर जायेंगे धीरे धीरे 
मत उदास हो मन हौसला रख 
ये दिन भी गुजर जायेंगे धीरे धीरे .
                                           "चरण"      

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