Saturday, July 16, 2011

गीत कि गरिमा पिघलती जा रही है

हर सखा अपना विभीषण हो गया है
इसलिए दूभर हर एक हो गया है
कब कहाँ पर घेर ले हमको तनहाइ
वक्त अब चानक्य का प्रण हो गया है
उँगलियाँ कैसे उठाएँ  अब दूसरों पर
छोकरा अपना कुलक हो गया  है
नयन से विछेद सम्बन्ध नींद का अब
तेंदुओं के सामने जब से समर्पण हो गया है
गीत कि गरिमा पिघलति जा रही है
कल्पनाओं पर नियंत्रण हो गया है .
                                          "चरण"
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आसमान छूकर भी बौने
कितने हैं मजबूर खिलौने
देह से का निक जाने पर
प्राण उड़े जैसे मृग छौने
कसर हम ऐसे  फिंक जाते
ज्यों शादी में पत्तल दौने
आगे बढ़ रोक रहे हैं
उनके कुछ संकल्प घिनोने
अभी अभी दफना आए
कुछ आशा कुछ स्वप्न सलोने
बतलाने कि बात नही है
घर फूंका है घर कि लौ
                            "चरण"

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