हर सखा अपना विभीषण हो गया है
इसलिए दूभर हर एक छन हो गया है
कब कहाँ पर घेर ले हमको तनहाइ
वक्त अब चानक्य का प्रण हो गया है
उँगलियाँ कैसे उठाएँ अब दूसरों पर
छोकरा अपना कुलकछन हो गया है
नयन से विछेद सम्बन्ध नींद का अब
तेंदुओं के सामने जब से समर्पण हो गया है
गीत कि गरिमा पिघलति जा रही है
कल्पनाओं पर नियंत्रण हो गया है .
"चरण"
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आसमान छूकर भी बौने
कितने हैं मजबूर खिलौने
देह से काम निकल जाने पर
प्राण उड़े जैसे मृग छौने
अकसर हम ऐसे फिंक जाते
ज्यों शादी में पत्तल दौने
आगे बढ़ पथ रोक रहे हैं
उनके कुछ संकल्प घिनोने
अभी अभी दफना कर आए
कुछ आशा कुछ स्वप्न सलोने
बतलाने कि बात नही है
घर फूंका है घर कि लौ
"चरण"
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