Sunday, June 12, 2011

उलझे इस जीवन को सुलझाये कौन

उलझे  इस जीवन को सुलझाये कौन 
प्रश्नों की बौछारें झेल रहा मौन 


पीपल के वृक्छों पर नीम चढ़े आते हैं 
बरगद की दाढ़ी में शूल मुस्कराते हैं 
मेरी इस गुत्थी को सुल्छाये कौन 
प्रश्नों की बौछारें झेल रहा मौन .

राइ के दाने में वृक्ष छुपा क्यों 
तिल के पिछवाड़े यह कोलाहल क्यों 
चींटी के सीने को चीर रहा कौन 
प्रश्नों की बौछारें झेल रहा कौन .

सपनो के आँगन में मुठीभर धूल
छोड़ गया कौन यह किसकी है भूल 
कण कण को पल पल निहार रहा कौन 
प्रश्नों की बौछारें झेल रहा मौन 

खिड़की में कांच जड़े मजबूरी क्या 
दरवाजे मौन खड़े सोच रहे क्या 
युग युग का सत्य अब नकार रहा कौन 
प्रश्नों की बौछारे झेल रहा मौन .

गीतों पर खून का इल्जाम लगा आज 
ड़ेंलूपी तकियों में छुपा हुआ राज 
कविता के माध्यम से खोल रहा कौन 
प्रश्नों की बौछारें झेल रहा मौन 
उलझे इस जीवन को सुलझाये कौन .
                                       "चरण"

1 comment:

  1. One of my favorite poems of my Dad. You should hear him sing this one...

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