क्यों राह में यूँ ऱोपकर पौधे गुलाब के
रुख मोड़ने लगे हो तुम मेरे ख़्वाब के
इस वास्ते हमने अभी निर्णय नहीं किया
हम इन्तेजार में थे मुक्कमल जवाब के
जिस शक्ल पर चिपकी हुयी हैं मुस्कुराहटें
है आंसुओं से तरबतर पीछे नकाब के
जिन पर लिखी हुयी थी मेरी दर्दे दास्तान
पुड़ीयों में ढल रहे हैं वे पन्ने किताब के
इस गाँव भर का खून सुखाने के बावजूद
नखरे अभी भी बरक़रार हैं तालाब के .
"चरण"
Bahut achhi rachna..
ReplyDeleteMere bhi blog me aaye..Aapka swagat hai..
मेरी कविता